| लेखक संजय झुन झुन वाला |
स्वाधीन भारत का इतिहास गवाह है, भारत की सेना ने जितनी भी जंग जीती है वो अपने जज्बे अदम्य साहस ओर साधरण नागरिको की दुआओ के बल पर ही जीती है, चाहे वो 47 की जंग हो, 65 कि जंग हो ,71 कि जंग हो या 99 में कारगिल की जंग । सन 1962 में हम चीन से जंग हारे पर कोई गम नही, इस हार से भी हमारी फ़ौज ओर जनता के जज्बे में कोई कमी नहीं आईं थी,इस कि जंग में हार के कारणों का विश्लेषण कभी और करेंगे। आज का हमारा नायक है एक देश का साधारण नागरिक जो पेशे से एक ट्रक ड्राइवर है जिसका नाम है कमलनयन।
शायद यह पहला ओर अभीतक का सबसे अनूठा उदाहरण है जिसमे हमारे देश के किसी साधारण नागरिक को राष्ट्रपति द्वारा शांति काल मे दिया जाने वाला सेना का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार अशोक चक्र प्रदान किया गया था।
1965 में पाकिस्तान से जंग छिड़ चुकी थी सेना का मनोबल ऊंचा था पर सैन्य संसाधन का अभाव था, इस दरमियान हमारा नायक कमलनयन अपने ट्रक no PNR 5317 में पंजाब के मलेरकोटला से नब्बे बोरे गेंहू ले कर दिल्ली के लिए रवाना हुआ, सफर के दरमियान उसके ट्रक को भारतीय सैन्य वाहिनी द्वारा रोक कर अनुरोध किया गया कि सरहद तक सेना को गोला बारूद पहुचाने के लिए एक वाहन की दरकार है। अपने पेशेवर ज़िम्मेदारी के उलट देशप्रेम की भावना से प्रेरित हो कर हमारे नायक कमलनयन ने अपने ट्रक में रखी नब्बे बोरी गेंहू को उसी स्थान पर पलट दिया और सेना के असलहे को अपने ट्रक में लाद कर पहुंच गया पाकिस्तान को सियालकोट सेक्टर की सीमा पर जंग के बीच।
वहाँ पहुंच कर इसने जो गदर मचाया वो काबिलेतारीफ था। जंग के मैदान में एक असैनिक ट्रक के ड्राइवर ने पाकिस्तानी बारूद से बेपरवाह एक साधारण भारतीय के जज्बे के रौद्र रूप जो प्रदर्शन किया वो असाधारण था।। इस घटना को भारत के इतिहास ने तो भुला दिया पर पाकिस्तान के सेनिको को जो उस जंग में सियालकोट में लड़ रहे थे उन्हें आज भी याद है जिन्होंने 30 अगस्त 1965 में भारत के साधारण नागरिक के देश प्रेम को साक्षात देखा था।
अफसोस हमारे नायक कमलनयन
को शांति काल का सर्वोच्च सैन्य वीरता पुरस्कार अशोक चक्र तो मिला पर तत्कालीन शीर्ष राजनेताओ द्वारा जिन ओर पारितोषिक की घोषणा की गई थी उनसे हमारा नायक 56 सालो के बाद भी अछूता है। कमलनयन जी आज भी सकुशल अपने परिवार के साथ जयपुर में निवास कर रहे है।
भूल संसोधन के लिए 56 सालो का वक्त ज्यादा नही तो कम भी नही है, प्रश्न स्वीकारोक्ति का है चाहे कभी भी हो।
रानीगंज









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